बोल कवि

उड़ कर तेरी सोच के पंछी
बोल कवि
अब और कहाँ जायेगे
तरनी तट तरुवर सूखे
घर आँगन
टूट गए दीवारों दर के रिश्ते
जंगल जंगल बस्ती बस्ती
सुबह सवेरे
मुह अंधेरे
घूम गया कोई जैसे
वैर विरोध का घोड़ा लेकर
वह नेजें तलवारें बाँट गया
गावों और शहरों की
दीवारें बाँट गया
छत्तों और मुंडेरों पर
धर्मों के नाम लिख लिए लोगों ने
किस छत पर उतेरेंगे
किस जात का दाना खायेगे
उड़ कर तेरी सोच के पंछी
बोल कवि
अब और कहाँ जायेगे
धरती धरती आग जले
अम्बर अम्बर धुआं